धरती का भार कौन है ?

गृहस्थ लोग सन्त-महात्माओं को धरती का भार कहते हैं, लेकिन वास्तविकता गृहस्थ लोग धरती का भार हैं ।

बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की ऽऽ जय ! आप लोग तो धरती के भार हो गये हैं। ये जो गुहस्थी, नौकरी-चाकरी वाले बिजनेस-व्यापार वाले हैं, ये सब के सब धरती के भार हैं । जितने गृहस्थ हैं -- दिन भर जुटाना, सुबह-शाम खाना और शाम-सुबह पखाना, दिन भर जुटाना, सुबह-शाम खाना और शाम-सुबह पखाना-- यानी जुटाना-खाना-पखाना जुटाना-खाना-पखाना जुटाना- खाना-पखाना इसी का नाम जीवन है । पहली को पाना तीस तक खाना और तीसों दिन गुलामी बजाना, यही जीवन है । जब तक क्षमता-शक्ति है पावो खावो गुलामी बजावो, पावो खावो औ गुलामी बजावो । जब क्षमताहीन हो जावो-- रिटायर हो जावो तब बधुवा बैल की तरह घर बैठ कर पेंसन ले जावो, कौरा ले जावो, इसी का नाम जीवन है । इतना ही भर के लिये जीवन मिला था ? यही मानव जीवन का फल था ? पेंसन यानी मौत की प्रतिक्षा करो ! जितने भी घर-परिवार वाले हैं, नौकरी-चाकरी बिजनेस- व्यापार वाले हैं, जवानी तक तो कुछ पता ही उनको नहीं चलता है। जब तक क्षमता शक्ति है, तब तक खुद करो खुद भोगो । जब वृध्दावस्था आती है तब सोचता है अरे ! मैंने तो सब गवाँ दिया। जो मुझे कमाना था वह तो मैं भूल गया । शेष जीवन इनकी कैसी बीतती है ? मौत की प्रतिक्षा में ! लेकिन ज्ञानी पुरुषों का जीवन क्या है ? आपको ये मानव जीवन मिला था अमरत्व की यात्रा करने के लिए, भोग भोगने के लिए नहीं ! भोगने के लिए तो तिरासी लाख निन्नानबे हजार नौ सौ निन्नानबे योनियाँ हैं हीं । भोगने के लिए ही तो ये हैं । बन गये जानवर हाथी-घोड़ा-साप गोजर पक्षी आदि । काहे के लिए ? भोग के लिये ही तो ! ये चीटियाँ काहे के लिए बन गयीं ? ये चीटें काहे के लिये बन गये ? ये जीव भोग ही तो भोग रहे हैं । भेड़-बकरी किसलिये है ? काहे के लिये बन गये? बाघ-शेर बन्दर-भालू काहे के लिये बन गये? क्या उपलब्धि मिलेगी प्रकृति को इनसे? प्रकृति कौन सा प्रयोजन हल करना चाहती है इनसे? भोग ही भोगा रही है इन जीवों को यत्र-तत्र डाल करके। चोरी-डकैती करते हैं, अपराध करते हैं क्या-क्या करते हैं। जेल में डाल करके बन्द कर देते हैं । स्वतन्त्रता छीन गयी, मुफ्त का भोजन मिल रहा है, मुफ्त का बस्त्र मिल रहा है फिर भी कोई जेल में रहना चाहेगा ? क्यों ? नहीं रहना चाहेगा । मालूम है कि स्वतन्त्रता छिन जाना मौत से भी बद्तर है । जेल में जब रहने लगेंगे तब आपकी स्वतन्त्रता बंध जायेगी-- छिन जायेगी । तब आपको रोटी-कपड़ा मिलने के बावजूद भी रोना पड़ेगा । आपको नाना प्रकार की बातें सोचनी पड़ेगी । आप अपने को कष्टमय जीवन जीने वाला पायेंगे चाहे जितनी भी सुविधायें आपको जेल में मिल रही हों । जितने भी क्रान्ति वाले होते हैं चाहे वे स्वतन्त्रता की क्रान्ति वाले हों या जिस किसी क्रान्ति वाले हों, वे जेल में प्रसन्न होते हैं । लेकिन जितने चोर-बदमाश-अपराधी किस्म के होते हैं, सब जेल में जाकर रोते हैं । क्या किया दरोगा जी ने ? मुफ्त का भोजन दिला दिया, मुफ्त का कपड़ा दिला दिया तो अब खुशी मनाओ । लेकिन नहीं । खुशी नहीं है । यानी स्वतन्त्रता इतनी बड़ी चीज है कि सब कुछ मिलने के बावजूद भी स्वतन्त्रता के कीमत पर कोई जेल में रहना नहीं चाहता । इसी तरह से प्रकृति ने भोगों में डाल दिया । अब भोगों न योनियों में जा-जा करके । भोगो न चिड़ियों की योनि में जा करके। भोगो न जलचर-नभचर की योनियों में जा-जा करके। बनचर की योनियों में जा-जा करके। भोग ही तो भोगना है । 
मानव योनि उन भोग-यातनाओं से मुक्त होने के लिये है। केवल मनुष्य है जो सब योनियों पर शासन करने वाला होता है। हाथी को भी पेट में चाकू घुसाकरव्हेल सील मछली जिसके पेट में दो-चार हाथी आगे-पीछे चल लेने वाले होते हैं, को भी बन्धन में रख लेना वाला मनुष्य है । आप बाघ-शेर को भी बन्धन में कर लेने वाले हैं । आप मनुष्य हैं -- जरा एक बार देखिये तो सही ! हनुमान जी के मन्दिर में बेसन रख दीजिए, फर्स्ट क्लास का घी रख दीजिए, मिश्री रख दीजिए और सब कुछ रख दीजिए और कहिये कि हनुमान जी लड्डू बनाकर खा लीजिए ! हनुमान जी नहीं करेंगे । आप को गर्ज हो तो लड्डू बनाकर रख दीजिए । किसी भी देवी-देवता को कोई काम देंगे, वे नहीं करेंगे । आप मनुष्य हैं । एक बार जरा देखिये तो सही ! ऐसा कोई जन्तु आपने देखा है जो धान, गेहूँ, मटर, चना, अनार, शरीफा, जीरा, धनिया, मिर्च, मसाला, मिठाई-बर्फी आदि में अन्तर बता दे । केवल मानव योनि है जो अन्तराल जानती है और अपने अनुसार उसको करके रखना-चलना जानती हो । एक यही मानव योनि ही है जिसमें आप हर चीज का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं । परमाणु से लेकर परमेश्वर तक के ज्ञान को प्राप्त कर सकने वाला सामर्थ्य इसी मानव योनि में है। हर योनियों को अपने अनुसार बनाकर रखने का क्षमता रखता है यह मानव योनि, दूसरा कोई नहीं । संसार क्यों बना है? जीव क्या होता है? आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह क्या होता है? परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह क्या होता है? ये जानकारियाँ केवल मनुष्य को ही हो सकती है । अन्य किसी भी जन्तु को नहीं हो सकती है । अन्य किसी भी भोगी प्राणी को नहीं हो सकती । क्या जानकारी भी बुरी होती है? जैसे आप शरीर जाने, संसार जानने के लिये आपने पढ़ाई लिखाई किया । क्या आपको जीव नहीं जानना चाहिए ? क्या आपको आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह को नहीं जानना चाहिए ? परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह खुदा-गॉड-भगवान् को नहीं जानना चाहिए ? जैसे शरीर-परिवार-संसार को जानते हैं, वैसे ही जीव-आत्मा-परमात्मा जानना चाहिए । चेक कर लीजिये वास्तव में सबसे ज्यादा सुपीरियर कौन हैं ? कौन श्रेष्ठतर है ? कौन उत्तमतर है? तब आप स्वीकार कीजिए ! जो भी श्रेष्ठतर हो, जो भी उत्तमतर हो, उसे स्वीकार कीजिए क्योंकि आप मनुष्य हैं और मनुष्य हर चीज को जान सकता है । हर मनुष्य श्रेष्ठतर होना-रहना चाहता है । हर मनुष्य उत्तमतर होना चाहता है । हर मनुष्य उच्चतर होना-रहना चाहता है । क्या चाहने मात्र से ये उपलब्ध हो जायेंगी? नहीं, उसके उपलब्धि के तौर तरीके को अपनाना होगा । पहले तो आपको ज्ञान चाहिये। शरीर-परिवार-संसार की जानकारी हुई । शरीर-परिवार-संसार से जुड़ करके आप अपना जीवन जीना शुरू कर दिये हैं । आप जीव-ईश्वर-परमेश्वर की भी जानकारी प्राप्त कर लीजिये और तब तय कीजिए कि हमारा शरीर वाला जीवन श्रेष्ठतर है कि जीव वाला जीवन श्रेष्ठतर है ? या हमारा आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह वाला जीवन श्रेष्ठतर है? या परमात्मा-परमेश्वर- परमब्रम्ह वाला जीवन श्रेष्ठतर है? एक बात तो जान ही लीजिए कि जब तक आप 'सम्पूर्ण' को सम्पूर्णतया नहीं जानेंगे, कैसे जान पायेंगे कि 'सत्य' क्या और कौन है और सर्वश्रेष्ठ कौन है? सर्वोत्तम कौन है? जो हमको वैसा ही बना सके । श्रेयस्कर कौन है ? वास्तव में श्रेयस्कर कौन है ? सत्य कौन है ? जो हमको सर्वोच्च बना सके। जो भला पूरा बना सके। ईश्वर तक की क्षमता शक्ति भला पूरा बनाने तक की नहीं है । ईश्वर तक का भी आपको ज्ञान हो किन्तु परमेश्वर के ज्ञान से रहित हों तो सन्तुष्टि नहीं आ सकती।
ये आज के धर्मोपदेशक जी लोग ! कैसेट-बुकलेट भी बेचते हैं और दान भी लेते हैं। किस धर्मग्रन्थ में ये नियम लागू कर दिया है? धर्म का ऐसा कौन सा सिध्दान्त लागू कर दिया गया कि दान भी लो और बुकलेट-चूरन-कैसेट भी बेचो । दान पर अपना जीवन जीना हो तो तुम भी दान करना सीखो, देना सीखो, दान करना सीखो। नहीं तो दूसरे से दान लेना बन्द कर दो । उसी से मांग कर अपना काम चला लो । बड़े विचित्र तरीके से धर्म को धन्धा बना लिया है इन सबने । धर्म की दुहाई देते-देते, उपदेश देत-देते, साधु उपदेश देते-देते जायेंगे, उड़ान तो ये गिध्द की तरह से सबसे ऊँचा भरते हैं। जैसे गिध्द पक्षी उड़ान में सबसे ऊँचा होता है लेकिन उसकी दृष्टि सड़े-गले माँस पर-- कहाँ बैल मरा है, कहाँ गाय मरी है, कहाँ भैंस मरी है, कहाँ कोई जन्तु मरा है--ऊँचा-ऊँचा जाकर देखता है और फिर वहीं पहुँच जाता है । वैसे ही गिध्द-भक्त मंच पर बैठकर जनता को देखता है कि जितने भक्त हैं सब मुर्छित हैं, हँसाते हैं, रुलाते हैं, भाव में बहाते हैं । सब करने के बाद जब जाते हैं तो देखते हैं कि जनता अब हो गयी फेंकने लायक । जैसे देहाती (तमाशबीन) तमाशा दिखाता है फिर चादर फैला देता है ।
मेले में हजारों पण्डाल लगे होते हैं । धर्म के किस चीज का उपदेश देते ये लोग ? जीव का पता ही नहीं है, आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह का पता ही नहीं है और इनको परमात्मा-परमेश्वर-परमब्रम्ह खुदा-गॉड-भगवान् का पता ही नहीं है । उपदेश किस बात का? स्वाध्याय मालूम ही नहीं, योग-अध्यात्म मालूम ही नहीं और इनको ज्ञान का पता ही नहीं । फिर उपदेश किस बात का? कौन है जो कह सके कि मैंने जीव देखा है? जीव तो देखा नहीं और देने लगे आत्मा-परमात्मा का उपदेश ! जीव को जानते ही नहीं और देते हैं ईश्वर-परमेश्वर का उपदेश ! यह जनता को ढगने का तरीका नहीं है ? जनता को ठग तो नहीं रहा है ? त्रेता में भी ऐसा ही हुआ था। द्वापर में भी ऐसा ही हुआ था । अवतार बेला के पूर्व, अवतार बेला में ऐसा ही हुआ था-- शासन तन्त्र दिशाविहीन हो जाता है । 
भारत के संविधान में सत्य की परिभाषा नहीं है । हम लोग इलाहाबाद हाईकोर्ट में गये । दिल्ली में भी गये सुप्रीम कोर्ट के वकील के पास । वकीलों के बीच तीन दिन तक बैठक किया कि इस धन्धेबाजी को कैसे रोका जाय । ये धर्म को धन्धा बना लिये हैं। समाज को ठग रहे हैं, लूट रहे हैं, दिग्भ्रमित कर रहे हैं । इनको रोकने का क्या उपाय है ? तीन दिन के बाद यह निष्कर्ष निकला कि भारतीय संविधान में सत्य की परिभाषा ही नहीं है । इसलिये सत्य कह करके हमें कोई कोर्ट डिग्री दे ही नहीं सकता । ये सरकार जो है, धर्म-निरपेक्ष है । धर्म-निरपेक्ष माने क्या ? सत्य-निरपेक्ष ! और सत्य-निरपेक्ष माने ? मति-भ्रष्टता ! क्योंकि धर्म कोई मन्दिर-मस्जिद-गिरजाघर तो है नहीं । धर्म तो कोई पुराण-बाइबिल- कुर्आन-गुरुग्रन्थ साहब तो है ही नहीं । धर्म कोई 'अल्लाहु अकबर' या 'हर हर महादेव' तो है नहीं । धर्म एक सच्चा 'ज्ञान' है । धर्म एक 'सत्य का विधान' है । एक 'सम्पूर्ण विधान' हैं ।  कोर्इ धर्म वाला भेदवाची नहीं हो सकता । धर्म वाला जो दूषित भावनाओं से हीन हो जायेगा तो हिन्दू कहलायेगा । मुसल्लम ईमान आयेगा तो मुसलमान कहलाने लगेगा । सच्चा जीवन जीना सीख लेगा कि हमारा जीवन सच्चा कैसे हो तो 'सिक्ख' कहलायेगा । जीवन जीने की सम्पूर्ण शैली को जान ले कि हमको चोरी, बेइमानी, झूठ-फरेब की जरूरत नहीं है । ऐसा जीवन जान ले तो जैनी हो गये । धर्म तो सत्य का विधान है, सत्य है । इसमें सम्प्रदाय कहाँ से आ गया ? जहाँ सत्य और सत्य का विधान हो, वहाँ धर्म-निरपेक्षता कैसे ? और जहाँ धर्म निरपेक्ष हो जायेगा वहाँ के लोग कैसे होंगे ? वहाँ के लोग किस तरह से संचालित होंगे ? जब सच्चाई ही समाप्त हो जायेगी, ईमान ही परिभाषित नहीं रहेगी तब जीवन कैसे जीयेंगे ? क्यों भ्रष्ट नहीं होंगे ? क्यूँ झूठ नहीं बोलेंगे ? चोर-बेइमान नहीं होंगे ? क्यूँ नहीं छली-लुटेरा होंगे ? कानून ? अभी एक नकली दरोगा आ जाये और पता चल जाये तो एस0 पी0 साहब तुरन्त गिरफ्तार करवायेंगे तुरन्त ! लेकिन नकली महात्मा को नहीं ! नकली इन्सपेक्टर समाज को ठग रहे हैं तो गिरफ्तार करेंगे लेकिन नकली महात्मा समाज को बरबाद कर रहे हैं लेकिन कोई गिरफ्तारी नहीं । महात्मा तो धन और धरम दोनों ठग रहा है । इस पर सरकार की कोई विचार सिध्दान्त नहीं है । कैसे जनता चलेगी ? किसको धर्म वाला कहें ? सब अपने अपने राग को अलापने में लगे हैं । 
हमको अपने 'हम' की ही जानकारी नहीं होगी तो हम क्या उपदेश देंगे । 'हम' जीव की जानकारी नहीं होगी, ईश्वर की जानकारी नहीं होगी, परमेश्वर की जानकारी नहीं होगी तो किस बात का हम उपदेश देंगे ? भैया, ज्ञान तो हर चीज का होना चाहिए । तब कही हमको उपदेशक बनना   चाहिये । पहले हम स्वयं पढ़ेंगे तब तो पढ़ायेंगे । जिस चीज का ज्ञान हमें खुद ही नहीं होगा तो हम दूसरे को क्या उपदेश देंगे । जीव-ईश्वर-परमेश्वर को जानेंगे नहीं तो उपदेश क्या देंगे ? इसीलिये सभी को चाहिये कि शरीर को जानते हैं तो जीव को भी जानें । ईश्वर को भी जानें-देखें और इसी तरह से परमेश्वर को भी जानें-देखें । तब मन्दिर भी आपको दिखाई देगा और मस्जिद भी दिखाई देगा। गुरुद्वारा भी आपको दिखाई देगा। कहीं कोई टकराव नहीं रह जायेगा । 'अल्लाहु अकबर' और 'हर हर महादेव' में कोई अन्तर नहीं रह जायेगा। अन्तर केवल भाषा का है ! जो हमारा शरीर है, वही जिस्म है । जो इधर जीव है, वही रूह है । जो आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह है, वही आसमानी रोशनी है। नूरे इलाही है। जो यमराज है, वही दरोगा भी है । जो यहाँ देवता कहलाता है, वही फरिश्ता भी कहलाता है । जिसे भूत-प्रेत कहते हैं, उसे ही जिन्नाद कहते हैं । नरक को जहन्नुम और स्वर्ग का जन्नत कहते हैं और परमधाम या अमरलोक को बिहिश्त का बाग कहते हैं । अन्तर क्या है? अन्तर केवल भाषा में है । किस बात की लड़ाई? जब हम दूसरे से जल रहे हैं तो हिन्दू कैसे हो सकते हैं ? जब हमारा कार्य डाह-द्वेषर्-ईष्या ही है तो हम हिन्दू कैसे ? जीव और जीवत्व को सीखे ही नहीं, हर किसी से अपनत्व सीखे ही नहीं, हर कोई ही हमारा ही है--यह सीखे ही नहीं, हम जीना सीखे ही नहीं तो हम 'सिक्ख' किस बात के हो गये ? यहाँ हम यही जनाने और दिखाने आये हैं कि एक भगवान के ही सब सन्तान हैं। नि:संदेह जो सच्चा हिन्दू है वही सच्चा बौध्द भी है । जो सच्चा बौध्द है वही सच्चा जैनी भी है । जो सच्चा जैनी है वही सच्चा मुसलमान भी है और जो सच्चा मुसलमान है वही सच्चा ईसाई भी है । जो सच्चा ईसाई है वही सच्चा हिन्दू भी है । यानी जो सच्चा है वह एक साथ ही सब है । वही हिन्दुओं में हिन्दू, सिक्खों में सिक्ख, बौध्दों में बौध्द, जैनियों में जैनी, मुसलमानों में मुसलमान, ईसाईयों में ईसाई है । सारे फिरका परस्ती कहाँ से आयीं ? इन मौलबी-मुल्लाओं से । इन पण्डित-पुजारियों से । सारी लड़ाई, चोरी- बेइमानी के बीज है । अज्ञानता में है । जिस समय ज्ञान हो जायेगा यानी जिस समय यह जानने को मिलेगा कि 'हम' शरीर नहीं, 'हम' जीव है और जीव भी नहीं, वह तो आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह था । माया के क्षेत्र में पड़ते हुये दोष और गुण से युक्त हो जाने से यह जीव बन गया और आगे बढ़ेंगे तो पायेंगे कि यह तो गजब हो गया । सब चीज परमेश्वर का है । सारा ब्रम्हाण्ड ही परमेश्वर का है । परमेश्वर से है । परमेश्वर द्वारा है और परमेश्वर में है । हम अलग लड़ाई क्यों करने लगे ? हम तो सब में यही देखते हैं कि 'हम' सभी में 'एक' का ही है । इसलिये हम सबको 'एक' का ही बनकर रहना होगा । हमको सब 'एक' होकर रहना होगा । ये ज्ञान में मिलेगा। सारी लड़ाई कहाँ खतम होगी ? सारे भेद कहाँ खतम होंगे ? ज्ञान में । ज्ञान में हम-आप सब एक परिवार के हो जायेंगे। ज्ञान में हम-आप सब लोग एक परिवार वाले दिखाई देंने लगेंगे । फिर ए चोरी-बेइमानी लूट-खसोट कहाँ से होगा । नहीं हो सकता। इसीलिए आप-हम सभी को चाहिये कि हम जिस तरह से शरीर परिवार और संसार को जानते-देखते हैं और उन्हीं में समाहित होकर चलते हैं, ठीक इसी तरह हमें जीव को भी जानना चाहिये, आत्मा-ईश्वर-ब्रम्ह को जानना चाहिये और परमात्मा-परमेश्वर- परमब्रम्ह खुदा-गॉड-भगवान् को भी जानना चाहिये । सभी को जानना-देखना चाहिये और तब तुलना करें कि श्रेष्ठतर जीवन कहाँ है । नि:सन्देह यह दिखाई देगा कि श्रेष्ठतर जीवन परमेश्वर के चरण-शरण में है । मिलता है सच्चा सुख केवल भगवान् तुम्हारे चरणों में-- यह स्पष्टत: दिखाई देने लगेगा ।
ऋषि-महर्षि लोग कितने समय तक जप-तप साधना करते करते हैं किन्तु अन्त में परमेश्वर को नहीं पाते हैं । और इ पाँच-सात  दिन के सत्संग में परमेश्वर दिखला देंगे? ईश्वर-परमेश्वर दिखला देंगे ? हाँ, भगवत् कृपा से सच्चाई तो ऐसा ही है । पहले कुछ मांग तो रहे नहीं हैं । पहले तो कुछ वसूल तो नहीं रहे हैं । पाँच पैसे भी अगर फीस हो तो कहना चाहिये । दान-चन्दा भी नहीं । दिक्कत किस बात का ? दिखलाने को कह रहे हैं । जब दिखलाने को कह रहे हैं तब भरमाना-भटकाना हो गया ? और लोग दान-चन्दा भी ले रहे हैं, वह भरमाना-भटकाना नहीं है ? हम वगैर दान-चन्दा के दिखलाने को कह रहे हैं । देख लीजिए, जान लीजिए, जाँच-परख कर लीजिए । हर प्रकार से सत्य ही हो तो, सभी ग्रन्थों से प्रमाण ले लीजिए तब हर प्रकार से सत्य ही हो तो सत्यता को स्वीकार कीजिये । इसी में सब 'सम्पूर्ण' हो, इसी में 'सत्य' हो तो परमेश्वर की चीज परमेश्वर को दे दीजिए और परमेश्वर का होकर चल दीजिये । 
बोलिए परमप्रभु परमेश्वर की ऽऽ जय ! यह एक सच्चाई है कि हमारा किसी प्रकार का किसी संस्था से कोई डाह-द्वेष नहीं है। कोई झगड़ा नहीं है । किसी भी प्रकार का अन्यथा कोई बात नहीं है । यह सच है । यह ज्ञान जो है अपने को बडप्पन लेने के लिये नहीं है । किसी को छोटा दिखाने के लिये नहीं है । किसी को छोटा दिखा कर हम बड़े हो जायेंगे-- ऐसा नहीं है । इस ज्ञान में ऐसा कोई विधान नहीं है । इसमें सबसे बड़ा परहेज तो झूठ से बचना है । हमको सबसे पहले सदा-सर्वदा झूठ से बचना होगा । जब हम किसी को नीचा दिखाने के लिये कुछ छिपायेंगे, किसी को नीचा दिखाने के लिये झूठ बोलेंगे तो पहले तो इस 'ज्ञान' का सिध्दान्त हमी को चलने नहीं देगा । 
लोगों के द्वारा जो आत्मा और परमात्मा की बात जो कही जा रही है, यह एक सच्चाई है कि जो परिभाषा दी जा रही है, वे गलत हैं क्योंकि सारा वर्णन-विवेचना आत्मा का आकृति के रूप में दिया जा रहा है । कार है, ड्राइवर है । ड्राइवर हो गया आत्मा और कार हो गया शरीर । ऐसा है नहीं ! यह बात तो सही है कि कार शरीर है । लेकिन ड्राइवर को संकेत किया गया है आत्मा के रूप में -- यह बात गलत है । अरे, शरीर तो एक कार है ही लेकिन जो ड्राइवर को आकृति रूप में जो आत्मा बताई जा रही है, वह सही नहीं है । इस शरीर रूपी कार का ड्राइवर आत्मा नहीं है, जीव है। इसी प्रकार जो आत्मा का वर्णन परमात्मा के रूप में किया जा रहा है, वह भी सही नहीं है । ज्योतिर्बिन्दु शिव ही परमात्मा है -- यह गलत है । ज्योतिर्बिन्दु शिव तो आत्मा है। यह परमात्मा नहीं है । किताबें तो खूब छपवा लिये हैं लेकिन कहने में भी अजीब लग रहा है कि एक भी ग्रन्थ नहीं जिससे उनके किताबों की मान्यता दी जाय । उनकी एक भी किताब नहीं जो पन्चानबे प्रतिशत गलत न हो ।  कहने में कितना अजीब लग रहा है कि उनकी सारी किताबें पाँच प्रतिशत भी सही नहीं हैं । किसी भी किताब को उठाइये, न मन का अर्थ-व्यख्या सही है, न बुध्दि का । न आत्मा की अर्थ-व्याख्या सही है न परमात्मा का । और छोड़िये न ! गीता भगवान कृष्ण की वाणी नहीं है । कितनी प्रचलित गीता है, नि:सन्देह शायद ही कोई गीता से अनभिज्ञ हो । नि:सन्देह धरती पर जितने भी ग्रन्थ हैं, उनमें द बेस्ट द बेस्ट द बेस्ट जो बुक है वह गीता ही है । ज्ञान में गीता जैसा कोई ग्रन्थ है ही नहीं । इतनी संक्षिप्तता में सम्पूर्णता को समाहित किये हुये है गीता । ऐसा कोई ग्रन्थ नही है । उस गीता के विषया में हर कोई जानता है कि गीता भगवान् कृष्णजी की वाणी है । भगवान् कृष्णजी ने अर्जुन को उपदेश दिया था । प्राय: हर कोई यह जानता है, एक बच्चा भी जानता है कि ये भगवान् कृष्णजी की वाणी है। परमात्मा की वाणी है ।  अब रही चीज यह कि इसमें भेद क्या है ? वे कृष्णजी को मान लिये शरीर और जो आत्मा है उसे कह दिया परमपिता परमात्मा शिव, यानी ज्योतिर्बिन्दु शिव । जो शरीर से बोलने वाला है वह है परमपिता परमात्मा-शिव । तो ये जो शिव हैं, ये उनकी वाणी है । कृष्णजी तो शरीर थे । ये शरीर वाले की वाणी है जो शरीर में था वो आत्मा थी । यह परमपिता शिव की वाणी है । यह उनकी दलील है ।
वास्तविकता तो यह है कि ज्योतिर्बिन्दु रूप शिव जो है वह परमात्मा है ही नहीं । यह आत्मा है और जो कृष्णजी के माध्यम से बोल रहा था वह ज्योतिर्बिन्दु शिव नहीं था । वह आत्मा नहीं था। कृष्णजी शरीर मात्र नहीं थे । वे जीव-आत्मा भी नहीं थे । वे उस ज्योतिर्बिन्दु रूप शिव के पिता रूप परमात्मा-परमेश्वर थे जहाँ से ज्योतिर्बिन्दु रूप शिव-आत्मा प्रकट और पृथक् होता रहता है-- छिटकता रहता है । यानी वे आत्मा या ज्योतिर्बिन्दु रूप शिव के परमश्रोत रूप परमपिता परमात्मा-परमेश्वर थे । अब सवाल है कि जो आत्मा(शिव) और परमात्मा के अन्तर को जानता है, वही  इस बात को पकड़ पायेगा । तब उसे इस सच्चाई को स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं होगी । यह सही है कि गीता कृष्ण(शरीर) की वाणी नहीं है लेकिन वह ज्योतिर्बिन्दु रूप शिव की भी वाणी नहीं है । वह ज्योतिर्बिन्दु रूप शिव के पिता रूप परमतत्त्वम् रूप आत्मतत्त्वम् शब्दरूप भगवतत्त्वम् रूप परमात्मा-परमेश्वर की वाणी है जो कृष्ण नामक शरीर से उस समय क्रियाशील था । गीता में उन्होंने अपना परिचय ज्योतिर्बिन्दु रूप शिव के रूप में नहीं बताया है । ज्योतिश: मेरा परिचय कीजिये-- ऐसा नहीं कहा है । ज्योतिरूप में मेरा परिचय कीजिये -- ऐसा नहीं कहा है । उन्होंने कहा है कि मेरा परिचय 'तत्त्वत:' कीजिये 'तत्त्वत: । 'जन्म कर्म च मे दिव्यं यो वेत्ति तत्त्वत:।' यानी मेरा परिचय शरीर मात्र से नहीं होगा । वासुदेव मात्र से नहीं होगा । नन्द-यशोदा मात्र से नहीं होगा । अर्जुन यदि मेरा परिचय करना चाहते हो तो तत्त्वत: करो । तत्त्वत: करो, ज्योतिश: नहीं ! और भगवान् श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन को तत्त्वदृष्टि (ज्ञान-दृष्टि) देकर अपना परिचय कराया भी । अपने विराटरूप को दिखाया भी ।
-------- सन्त ज्ञानेश्वर स्वामी सदानन्द जी परमहंस

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